Wednesday, November 2, 2011

हे रेलगाड़ी तू मेरे पहाड़ न जा

सोनिया गांधी 9 नवंबर को ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन का शिलान्यास करेंगी। पहले गंगा और फिर अलकनंदा के किनारे छुक-छुक करती ट्रेन कर्णप्रयाग तक जाएगी। कितना रोमैंटिक है। इस रोमैंटिक नजारे से कुछ पहाड़ी दोस्त बहुत खुश हैं।

लेकिन उनकी यह खुशी मुझे समझ नहीं आती। जमीनी हकीकत देखता हूं तो मन उदास होता है। न जाने कितने पेड़ कटेंगे। कच्चे पहाड़ों को और खोदा जाएगा। सड़कों, बांधों और बिजली की हाई-वोल्टेज तारों के लिए तो वैसे ही जंगलों का सत्यानाश कर दिया गया है। सबसे हैरत इस बात पर होती है कि पहाड़ से इसके विरोध में अभी तक कोई आवाज क्यों नहीं उठी है।

आखिर पहाड़ पर ट्रेन क्यों चढ़नी चाहिए? क्या गर्मियों में आने वाले चंद पर्यटकों के लिए? ट्रांसपोर्ट के लिए पहाड़ में ट्रेन की जरूरत तो मुझे दूर तक नजर नहीं आती। अंग्रेजों ने तो अपनी अय्याशी के लिए यह सब किया था। अगर टूरिज़म की ही बात दिमाग में है तो पहाड़ों के लिए रोप-वे से बेहतर क्या कुछ हो सकता है। स्विट्जरलैंड को देखिए।

अलग उत्तराखंड राज्य के पीछे तर्क था पहाड़ की सारी योजनाएं दिल्ली-लखनऊ में वहां के हिसाब से बनती हैं। अब तो अलग राज्य है। फिर इस विचार को क्यों नहीं ऋषिकेश में ही नमस्कार कर दिया जाना चाहिए था? क्यों नहीं कह दिया जाना चाहिए था कि साहब यह ट्रेन मैदानी हिस्से तक ही रखिए, हमें रोप-वे जैसे कुछ दूसरे विकल्प बताइए।

खैर यह सब होता नहीं दिखता। इसलिए दोस्तों को उनकी इस पहाड़ी ट्रेन का 'रोमैंटिक' सफर मुबारक।

अंधाधुंध बांधों पर लिखे लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी जी के चर्चित गीत की पक्तियां हैं, 'उत्तराखंड की धरती यूं डामूं मा डामियाली जी...।'शायद इसी तर्ज पर उनका अगला गीत कुछ यूं हो, 'उत्तराखंड की धरती ईं रेल ने खैंडियाळी जी...'