Wednesday, April 7, 2010

मेरे पहाड़ की बेटियां

पिछले साल अप्रैल में अपने गांव टिहरी गया था। एक साल हो गया। लेकिन दो तस्वीरें अभी भी आंखों के आगे घूम रही हैं। स्कूल से घर लौटती उस बच्ची की तस्वीर। पीठ पर बस्ते के बोझ से बड़ा था उसके सिर का बोझ। वह गेहूं पिसवा कर घर ले जा रही थी। सड़क से आधा एक किलोमीटर तक उसके गांव का अता पता नहीं था। जाहिर है स्कूल आते वक्त गेहूं को स्कूल के रास्ते में पड़ने वाली चक्की और घराट तक लाई भी होगी वह।

दूसरे तस्वीर कुछ शर्मसार कर देने वाली। जिस जीप से हम जा रहे थे, उसमें कुछ रिटायर्ड फौजी भी थे। कैंटीन से शराब का पूरे महीने का कोटा था उनके पास। गांव से एक किलोमीटर नीचे सड़क पर गाड़ी रुकी। फौजी भाई साहब उतरे। क्या देखता हूं कि उनकी पत्नी और एक 12 से 14 साल की बच्ची वहां खड़ी हैं। बैगपाइपर की पेटी उन्होंने बेटी और बाकी सामान बीवी के सिर पर रखा और सभी गांव की तरफ चल पड़े। कितनी शर्मनाक तस्वीर थी यह। अब तक आंखों के आगे से नहीं जाती।
अपने पहाड़ की बेटियों की नियति है यह। दिल्ली में जब इस संघर्ष से निकलकर यहां एसी में पली-बढ़ी लड़कियों के साथ उनको कदम से कदम मिलाते देखता हूं तो बड़ा गर्व होता है उन पर।

मेरे पहाड़ की बेटियो
क्या हुआ उनके बस्ते से कई गुना भारी है तुम्हारे सर का बोझ
क्या हुआ एक बहुत बड़ी खाई है तुम्हारी और उनकी पढ़ाई में
जिस तरह रोज ही लांघती हो तुम पहाड़ों की हंसते-हंसते
मुझे यकीन है उसी तरह इस खाई को एक छलांग में पाट दोगी
और चलोगी यहां राजपथ पर अपनी दूसरी बहनों की तरहे सीना ताने