Tuesday, August 14, 2007

उत्तराखंड ...जंग जारी है

यह पोस्टर दो अक्तूबर 1997 को तब छपा, जब उत्तराखंड आंदोलन अपने आखिरी दौर में था। लंबे संघर्ष के बाद एक अलग प्रदेश का सपना बस साकार होने को था। उम्मीदें जवां थीं और सपने आकार लेने लगे थे। अपना उत्तराखंड कैसा हो, उसके आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक स्वरूप की कल्पना इस पोस्टर में झलकती है। आज जब उत्तराखंड बने साढ़े छह साल होने को आए हैं, आइए इसी पोस्टर की पंक्तियों के सहारे पड़ताल करें कि जो ख्वाब आंदोलनकारियों ने बुने थे, वे कहां तक साकार हो पाए हैं। देहरादून-नैनीताल के अतिसंपन्न इलाकों से लेकर, बद्रीनाथ के पीछे स्थित माणा और धारचूला के कुटी जैसे सीमांत गांवों में रहने वाले आम पहाड़ी का सपना कितना पूरा हो पाया है।
पहले बात करें आर्थिक न्याय और अपने हिस्से के विकास की। पहाड़ के मैदानी इलाकों से जैसे-जैसे आप पहाड़ की ऊंचाइयों को नापेंगे, फूलती सांसों के बीच समृद्धि के टापुओं की चकाचौंध खत्म होती दिखती है। यहां नजर आता है पहाड़ का वो चेहरा, जो दशकभर पहले भी कमोबेश वही था। यहां आर्थिक न्याय और अपने हिस्से की रोजगार की बात बेमानी लगती है। देहरादून में अपने हमनाम दिल्ली के कनाट प्लेस से चमचमाते बाजारों, राजपुर रोड पर महंगी कारों और लखटकिया बाइकों में दौड़ते रईसजादों के बरअक्स पहाड़ के कई गांवों में लालटेन टिमटिमा रही है। एक तरफ एसी में पलने-पढ़ने और आने-जाने वाले बच्चे हैं, तो दूसरी तरफ खतरनाक नालों को पार कर पांच-छह किलोमीटर दूर स्कूल जाने वाले बच्चे। हां, उसके चेहरे पर मुस्कराहट है, लेकिन थोड़ा कुरेदेंगे तो दर्द की टीस सुनाई पड़ जाएगी। अपनी धरती पर रोजगार का सपना बस सपना है। पहाड़ की जवानी और पानी का बहुचर्चित जुमला आज भी लोगों की जुबान पर है। बल्कि पहाड़ों से रोजगार की तलाश में मैदान की ओर होने वाले पलायन की रफ्तार बढ़ी है।